SC-ST Act केस पर हाईकोर्ट का आदेश! पूछा धर्म बदला तो SC-ST कैसे?

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का चौंकाने वाला फैसला एक व्यक्ति ने खुद कबूला कि वह एक दशक से ईसाई पादरी है, फिर भी SC-ST एक्ट के तहत संरक्षण चाहता था। कोर्ट ने कहा, धर्म परिवर्तन के बाद दलित संरक्षण संभव नहीं! जानिए इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे की पूरी कानूनी और सामाजिक दलील।

By Pankaj Singh
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SC-ST Act केस पर हाईकोर्ट का आदेश! पूछा धर्म बदला तो SC-ST कैसे?
SC-ST Act केस पर हाईकोर्ट का आदेश! पूछा धर्म बदला तो SC-ST कैसे?

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट (Andhra Pradesh High Court) ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, जिसे आमतौर पर SC-ST एक्ट (SC-ST Act) कहा जाता है, के अंतर्गत दायर एक केस को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया कि जब कोई व्यक्ति स्वयं यह स्वीकार करता है कि वह पिछले दस वर्षों से ईसाई धर्म (Christianity) का पालन कर रहा है और पादरी (Pastor) के रूप में कार्य कर रहा है, तो वह अनुसूचित जाति के अधिकारों के तहत इस विशेष कानून का लाभ नहीं ले सकता।

इस महत्वपूर्ण फैसले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि संविधान और संबंधित कानून अनुसूचित जातियों को उनके सामाजिक-आर्थिक और ऐतिहासिक रूप से वंचित स्थिति के मद्देनजर विशेष संरक्षण प्रदान करते हैं। लेकिन जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन कर लेता है और स्वयं को उस धर्म की परंपराओं और सामाजिक संरचना में सम्मिलित कर लेता है, तो उसकी मूल जातीय पहचान उस नए धर्म के ढांचे में समाहित हो जाती है।

याचिकाकर्ता ने खुद स्वीकारा: ‘मैं पादरी हूं और ईसाई धर्म का अनुयायी हूं’

इस केस में याचिकाकर्ता ने कोर्ट में खुद यह बात मानी कि वह एक पादरी है और पिछले करीब दस सालों से पूरी तरह ईसाई धर्म का पालन कर रहा है। उसने यह भी कहा कि वह धार्मिक उपदेश देता है और समुदाय के बीच ईसाई मूल्यों का प्रचार-प्रसार करता है।

कोर्ट ने इस स्वीकृति को ही मुख्य आधार बनाते हुए कहा कि इस परिस्थिति में याचिकाकर्ता को अनुसूचित जाति की पहचान और उससे जुड़ी संवैधानिक सुरक्षा का लाभ नहीं दिया जा सकता।

धर्म परिवर्तन और अनुसूचित जाति का कानूनी संबंध

SC-ST एक्ट का मूल उद्देश्य सामाजिक अन्याय और उत्पीड़न से अनुसूचित जातियों और जनजातियों की रक्षा करना है। लेकिन जब कोई व्यक्ति हिंदू धर्म (Hinduism) से ईसाई धर्म (Christianity) या इस्लाम (Islam) जैसे अन्य धर्मों में परिवर्तित हो जाता है, तो संवैधानिक दृष्टिकोण से उसकी जातीय स्थिति बदल जाती है, खासकर जब वह नए धर्म के अनुरूप जीवन जीने लगता है।

कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि अनुसूचित जाति का दर्जा केवल उन्हीं व्यक्तियों को मान्य होता है जो हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म का पालन करते हैं। यह स्थिति संविधान (अनुसूचित जातियों) आदेश, 1950 के अनुच्छेद 341 के अनुसार निर्धारित की गई है, जिसमें यह स्पष्ट है कि ईसाई और मुस्लिम धर्म में परिवर्तित व्यक्ति अनुसूचित जातियों की परिभाषा में नहीं आते।

समाज में व्यापक प्रभाव और कानूनी नजीर

इस निर्णय का प्रभाव व्यापक माना जा रहा है, क्योंकि यह उन मामलों के लिए एक स्पष्ट नजीर बन सकता है, जहां धर्म परिवर्तन के बावजूद व्यक्ति SC-ST एक्ट के संरक्षण की मांग करते हैं। कोर्ट का यह कदम सामाजिक और कानूनी दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि यह न केवल कानून की व्याख्या करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि आरक्षण और सामाजिक न्याय की व्यवस्था का दुरुपयोग न हो।

इसके अलावा, यह मामला उस गहराई से भी जुड़ा है जहां दलित समुदाय के कुछ सदस्य धार्मिक उत्पीड़न या सामाजिक भेदभाव से बचने के लिए दूसरे धर्मों को अपनाते हैं। लेकिन ऐसे मामलों में, यदि वे स्वयं को पूरी तरह उस नए धर्म में समाहित कर लेते हैं, तो फिर उन्हें पूर्व की जातिगत श्रेणियों के तहत संरक्षण मिलना संवैधानिक रूप से संभव नहीं रह जाता।

कोर्ट की टिप्पणी और सामाजिक पुनर्परिभाषा की आवश्यकता

हाईकोर्ट ने इस अवसर पर यह भी कहा कि सामाजिक न्याय की अवधारणाएं केवल कानूनी तकनीकीता पर आधारित नहीं हो सकतीं। जब कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से एक नए धर्म का अंग बन जाता है और वहां की जीवनशैली, पदों और कर्तव्यों को निभा रहा होता है, तो उसे उसी ढांचे में परखा जाना चाहिए।

इस केस ने यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है? क्या धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्तियों के लिए कोई नई सामाजिक श्रेणी या व्यवस्था तय की जानी चाहिए, जो उन्हें न तो पुराने जातिगत संरचना में रखे और न ही पूरी तरह उससे बाहर निकाले?

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Pankaj Singh

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